प्रिया आनंद शरण जी, “श्री हरिवंश महाराज जी! महाराज जी! कैसे जाने कि हम बेपरवाह हो रहे हैं या लापरवाह? आश्रय के नाम पर भजन में प्रमाद और अपनी लापरवाही को…”
“बे… गुरु आज्ञा का उल्लंघन होकर मनमानी आचरण होने लगे, तो समझो लापरवाह हो रहे हैं। और जब प्रभु के हर विधान में संतुष्ट होता है और भजन की तरफ गति है, तो जानना चाहिए बेपरवाह है। समझ रहे? गुरु आज्ञा, शास्त्र आज्ञा का उल्लंघन करके मनमाना आचरण की जब हमारी वृति हो, तो हम लापरवाह हो रहे हैं। ठीक नहीं है! और जब हमारा नाम जब चल रहा हो और प्रभु के द्वारा दिए गए विधान में संतुष्ट है, जैसी परिस्थिति है, जैसा कष्ट में जीवन है, कोई निंदा कर रहा है, अपमान कर रहा है, और हम मस्त हैं, तो हम बेपरवाह हो रहे भरोसे पर लाड़ली के। और जब हम मनमानी आचरण कर रहे हैं, तो लापरवाह! उसका दंड मिलता है और इसमें इनाम मिलता है दासता का। लाडली अपने कुंज-निकुंज की सेवा परिचर्या करने का अधिकार दे देते हैं।”
समझ में आया? महेश श्रीवास्तव जी, अफ्रीका से। “सदगुरुदेव भगवान के श्री चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम! महाराज श्री! शरणागत मंत्र होठ बंद करके जपा जाता है, तो जैसे आप बताते हैं कि नाम पहले जिव्या पर विराजमान होता है, फिर कंठ में आता है, फिर हृदय में समा जाता है, तो यह प्रक्रिया मंत्र के साथ भी संभव है?”
“अब हम क्या जप रहे, तुम नहीं जान रहे, पर ऐसा लग रहा है कुछ जप रहे हैं। जीभ तो काम कर रही है ना? तब मंत्र जब पूरा जिव्या शांत चल रहा है, अब मानसिक चल रहा है, एकदम मानसिक में मन नहीं लगता। उसका एक क्रम है। पहले जो है, जिव्या के अग्र भाग को हिलाते हुए मंत्र जप करें। फिर जब कंठ से जपा जाता, जिव्या का अग्र भाग ऊपर के दांत के तालू में लगा लिया जाता है। फिर जब मानसिक प्रारंभ होता है, मुंह खुला है, ऐसा है, ये सब बाहरी बातों का कुछ नहीं रहता, दिमाग में चल रहा है, चल रहा है। हम आपकी तरह फेर रहे हैं, आपके चेहरे में मंत्र दिखाई दे रहा है, इधर देख रहे हैं, मंत्र दिखाई दे रहा है, वो बसा हुआ, जो बस गया है, फिर वो और नीचे उतरता है, रोम-रोम में, नस-नाड़ियों में मंत्र नाम समा जाता है। देखो महापुरुषों, जहां भूमि में पग रख दिया, वो भूमि बोल रही, ‘विट्ठल-विट्ठल!’ जिस कंडे को छू लिया, तो कंडा बोल रहा, ‘विट्ठल-विट्ठल!’ हड्डियों में कान में लगाया, तो निकल रहा, ‘विट्ठल-विट्ठल!’ नाम समा गया।”
“मंत्र को ऐसे उच्चारण नहीं किया जा सकता, जैसे, ‘राधा-राधा-राधा, श्यामा-श्यामा-श्यामा!’ ऐसे मंत्र नहीं। मंत्र होठ बंद! उपासक को चाहे इसमें उसको लगेगा कि हम थक रहे हैं, यह केवल मन का भार है। घंटों प्रपंच की बात कर लो, कभी नहीं थकोगे, मन नहीं कहेगा थक गया। लेकिन अगर एक घंटे जप करोगे, तो आपको सिखाएगा, माथा दर्द कर रहा है, जबान दर्द कर रही है, थोड़ा चैन ले! यह बेईमानी कर रहा है अंदर से मन! हम कहते हैं, तीन-चार घंटे की फिल्म हो, आप बैठे हो, हजारों लोग बैठे हैं, आपको कोई परेशानी नहीं। चार घंटे आप बढ़िया आराम से बैठ के देख सकते, लेकिन 40 मिनट अगर एकांत बैठक या समाज में बैठकर नाम जप करना कहो, तो मन अंदर से परेशान करने लगे। बड़ा अंतराय है! तो इसको संभाले मन को पहले। प्रारंभिक, क्योंकि मानसिक प्रारंभिक जप में नहीं आता है, यह तो सिद्ध कोटि के अंतर्गत आता है। जिसका मानसिक जप चलता है, वो सिद्ध कोटि की अवस्था की तरफ पहुंच रहा। उसका कोई प्रयास नहीं, जैसे पलकें स्वाभाविक झपक रहीं, श्वास स्वाभाविक निकल रही, ऐसे उसका स्वाभाविक सहज भजन होता है।”
“सूरत योग! वो बात भी कर रहा है, तो अपने प्रीतम में ही है। जैसे हम आपसे बात कर रहे हैं, पर आपका यदि चित्त विषयों में आसक्त है, संसार में आसक्त है, तो आप बात हमारी सुन रहे हो, लेकिन अंदर की रील वही चलेगी संसार में। ऐसे सिद्ध भक्तों की आंतरिक रील प्रिया-प्रीतम में चलती है, श्यामा प्यारी में। बातचीत भले व्यवहार की चेष्टा करते नजर आवें, उठते, बैठते, खड़े, चलते, फिरते, खाते, पीते, हर समय उनका काम ही नार प्यार। ‘जिमि लोभी जिमि प्रिय दम!’ ऐसे जैसे कामी पुरुष कोई चेष्टा थोड़ी करता है, अंदर से उसका चिंतन कामिनी का होता। लोभी पुरुष धन के लिए कोई ध्यान लगाना, कुछ ऐसा नहीं, स्वाभाविक उसका ध्यान धन में। ऐसे ही परम धन प्रियालाल में उपासिकों का मन समर्पित हो जाता है। इसलिए प्रारंभ में मन को छूट ना दें, उसका अभ्यास जरूर करावें। और जहां कोई थोड़ा भजन करने तो मन उसको शिक्षा देने लगता है, ‘मानसिक में बहुत लाभ है!’ और जहां मानसिक में आप थोड़ा करेंगे, तो भाग जाएगा वो, खत्म! वो प्रपंच में! क्योंकि मन से भजन करने का मतलब, ठीक मन पंगु होकर उसी नाम में लगे, उसी मंत्र में लगे। और जब मन में प्रेम का आवेश हो जाता है, फिर सब साधनों का फल मिल जाता है। और निरंतर भजन स्वयं मन करने लगता है। अब स्वयं मन श्री कृष्णमय हो जाता है, स्वयं मन प्रेममय हो जाता है। इसका कुछ ऐसा, इसमें जो रंग डालो, वही रंग हो जाता है। जैसे काम आएगा, तो मन काममय हो जाएगा, क्रोध आएगा तो क्रोधमय हो जाएगा। अगर मन में नाम डाल दिया ना, तो मन नाममय हो जाएगा, श्याम डाल दिया तो श्याममय हो जाएगा, राम डाल दिया तो राममय हो जाएगा। इसका स्वरूप ही ऐसा मन का है। इसमें जो पकड़ा दो, वो वही अपने में तन्मय कर लेता है।”
“सम क्या होता है? जब करते-करते तो अंदर जीभ चलाने की आदत बनी नहीं, खाली नाक में कंपन महसूस होता है और गले तक जाने की बात बहुत…”
“हां, तो इतना भी काफी है! ये नाक के जो स्वर से कटाक्ष होता है ना मंत्र का, यह भी अच्छा है, ये भी अच्छा है! बस होठ बंद है, ये इसका भी अभ्यास किया है हमने शुरू में, इसलिए इसका भी परिचय है। श्वास की कटाक्ष, जैसे मतलब वो मानो नाक से जैसे गुनगुनाया जाता है, तो गुनगुनाने में आवाज बाहर आती है, पर वो अंदर गुनगुना रहा है मंत्र को। उस श्वास की हल्की कटाक्ष से मंत्र उच्चारण होता है, ठीक है, अच्छा है! करते रहिए!”
“लाभ मंत्र पर हो या रूप लीला चिंतन, हमारा सबसे पहला उद्देश्य होना चाहिए संसार का चिंतन छोड़ना। समझ रहे हो? हमें लाभ-वृद्धि में नहीं देखना, हमारा सबसे बड़ा लाभ है, ‘न केन प्रकारेण’ संसार, शरीर का, भोगों का चिंतन ना हो पाए। अब वो हमारा मन निरंतर नाम में लगता है कि मंत्र में लगता है कि रूप में लगता है कि लीला में लगता है, एक रस ये रह नहीं सकता, क्योंकि सिद्ध पुरुष होने… सिद्धावत में डूबा, तो कई घंटे रूप में डूबा है, नाम में डूबा, तो कई घंटे नाम में डूबा हुआ है। लेकिन अपने लोग साधक हैं, तो इसीलिए, ‘अभ्यास योग युक्तेन!’ हमको ऐसे अभ्यास योग युक्त होना है, ‘चेतसा नान्य गामिनि!’ कि हमारा चित्त कहीं और जाए ना! तो देख रहे, मंत्र से ऊब के भाग रहा है, तो नाम में लगा दिया। नाम से भाग रहा, सत्संग सुनाने लगे, स्वाध्याय में लगा दिया, सेवा में लगा दिया। हमको अभ्यास योग…”
“… युक्तेश्वर छके, भूमत रहे, कोउ तनिक न भान। नारायण दृग जल बहे, यह प्रेम प… वो जो भेजेंगे, आ जाएगा, अपने क्या मतलब है! अगर नाम की आसक्ति भेजें… रोम-रोम, जब रग-रग बोले, तब कछु स्वाद नाम को पावे! धाम, तो खुली आंख से दिव्य वृंदावन आपको झलकने लगेगा। वो भेजते हैं, वो अपनी सामर्थ्य नहीं होती, प्रियालाल हमें देते हैं। हमें क्या करना है? ‘अभ्यास योग युक्तेन, चेतसा नान्य गामिनि!’ हमारा चित्त कहीं चलायमान ना हो! केवल एक प्रभु के नाम, रूप, लीला, धाम, किसी में भी लगे। अभी हमारी प्रधानता इसमें लगे नहीं होनी चाहिए, हमारी प्रधानता इसमें, ‘ना लगे संसार, शरीर, संबंध!’ इसकी याद ना आवे, पहले इस पर आना चाहिए। समझ रहे?”
“असल बात, सांसारिक काम को भागवती बिना बनाए बात नहीं बनेगी। अगर आप उसको सांसारिक ही रखेंगे, तो मतलब अधूरा रहेगा काम। हमें वो समय भी सार्थक करना है। देखो, जो काम हम करते हैं, उसका हमारे अंदर संस्कार पड़ता है। जैसे आप आठ घंटे सांसारिक काम के हो, माना ये सांसारिक काम है और उसमें आप सावधान नहीं रहे, नाम जप नहीं किया, तो अब दो-दो घंटे जो आपको मिलेंगे ना, तो चाहे जितने चतुर होता करो, वो आठ घंटे की रील दो घंटे आपको चला के दिखाई जाएगी। आप लड़ते रहो उस समय, ना रूप का स्वाद होगा, ना नाम का स्वाद होगा, केवल लड़ाई होती रहेगी। क्योंकि वो चार घंटे, आठ घंटे जो उसने सीन ली है ना, वो बड़ा चतुर है मन, वही भेजता रहेगा। उसने ऐसा क्यों कहा, ऐसा उसको किया, वैसा, वैसे वो चलाता रहेगा। अगर उसे भागवत मानव प्रभु में समर्पित कर दिया, तो उसकी पहचान की उसकी याद नहीं आनी चाहिए, जो आठ घंटे किया। अब जो करना है, चाहे रूप में डूबो, चाहे नाम में डूबो। बात समझ में आ रही है? अच्छे से! अंदर से उसको, जो समय आप संसार में, व्यवहार में देते हैं, देना ही पड़ेगा, सबको देना पड़ता है। चाहे जितना बड़ा महात्मा हो, उसको दर्शन देने के लिए आना पड़ता है, उसको सबसे बात करनी होती है, सबकी दुख-सुख की बातें पूछ कर के उसको प्रभु में आकर्षित करता है, ये उसकी सेवा है। पर वो किसी से राग नहीं करता। आपके जाने के बाद आपकी अगर झांकी हमारे मन में आ गई, इसका मतलब हम आपसे राग करते हैं। आपके हटने के बाद जहां हम हैं, वहीं होनी चाहिए। अगर आपकी याद आई है, तो कोई ना कोई त्रुटि हो गई आपसे हमारी, तभी आपकी याद आएगी। क्योंकि प्रेम जो होता है, वो सच्चिदानंद प्रभु में होता है। राग जो होता है, वो पांच भौतिक रचना में होता है। पांच भौतिक रचना की कोई भी याद आना, वो राग की सूचना है। यदि प्रभु के संबंध से है, तब तो ठीक है। अगर ऐसे याद आती, तो वो राग है। और जहां राग है, वहां फिर अनुराग का मार्ग बाधित करने वाला है। क्योंकि यह राग जब वैराग्य में बदलता है, तभी अनुराग का प्रादुर्भाव होता है।”
समझ पा रहे? “जी! नाम या मंत्र जप में संख्या की अपेक्षा उसके चिंतन की प्राथमिकता है। यही तो, जैसा कि पूर्व में सुना है कि निज मंत्र के लिए 18 लाख जप होना चाहिए, तो उसका निर्वाहन कैसे होगा, महाराज?”
“हां! मतलब उसका निर्वाह का मतलब है, आदमी को लगाना। समझो नहीं, 18 लाख जपने! 18 लाख जपने के बाद वो अधिकारी नहीं बन जाता, उसको केवल लगाना है। अभी पांच मिनट में निज बन सकते हो, पांच मिनट में! 18 तो लाख बहुत! पांच मिनट में अंदर से आर्त भाव से हुआ कि, ‘लाडली! मैं साधनहीन, आपके गोरे चरण अरविंद के सिवा मेरा कोई नहीं!’ अच्छे से आ गए, आप निज बन गए, निज मंत्र के अधिकारी हो गए। और आप 18 करोड़ जप लीजिए और आपको हम बना रहे कि मैंने 18 करोड़ जपा, तो भी लाडली लायक नहीं बने। क्योंकि इस दरबार में अखिल कोटि ब्रह्मांड का स्वामी भी दैन्य होकर प्रवेश किया, वहां श्यामा जी की कृपा को ताकता रहता है। श्यामा जी की कौन बात… और, ‘याही रस बस भए, ये और की और है!’ ये बहुत… मतलब एक… अब तो मतलब चर्चा नहीं इस बात की, चर्चा नहीं! तो केवल एकांतिक रसिकों का विषय है।”
“तो यहां चिंतनीय बात है, श्री जी से जब आप… देखो, हम आपको जानते नहीं प्रगट में, लेकिन आप जैसे प्रश्न कर रहे, तो परिचय मिल रहा, आप मेरे हैं, आप हमारी श्री जी के हैं, तो आप बन रहे हैं ना निज जन? आपको बताने की थोड़ी जरूरत है, आप निज जन बनते चले जाएं! ऐसे आप जपते रहिए, भजन करते रहिए, श्री जी से अपनापन करते रहें, तो नेत्र देखते ही पता लग जाता है कि ये अपने जन हैं। अपने जन, जो हमारी लाडली को जितना प्यार करते हो, हमारा उतना ही प्राण प्रिय होगा। और अगर ये हमारा शरीर भी लाडली के विरुद्ध कोई आचरण कर दे, तो वो भी निंदनीय और त्याज्य नहीं हो जाएगा? फिर अन्य शरीरों की बात क्या! लाडली के अनुकूल हो जाए, तो कोई भी हो! देखो, यहां के आचार्य जन, महापुरुष, यहां के खग, मृग, पशु, पंछियों की भी वंदना करते हैं। क्यों? क्योंकि लाडली के हैं ना! हरिराम व्यास जी के… ‘किशोरी! अब मोहि अपनी कर लीजै! और दिए कछु भावत नाहीं, वृंदावन रज दीजै! खग, मृग, पशु, पंछी या बन के चरण शरण रख लीजै!’ हे वृंदावन के खग, मृग, पशु, पंछी! मैं आपसे प्रार्थना करूं, मुझे अपने चरणों की शरण दीजिए! पशु-पक्षियों की भी शरण मांग रहे! काहे के लिए? वो लाडली जी के हैं ना! तो जो लाडली जू का है, वही अपना वंदनीय है, अपना प्रियजन है। और जो लाडली से परिचय नहीं, वो कोई भी हो, चाहे वो भगवान की कोटि का हो, तो भी हमारा परिचय उससे नहीं होगा। तो हम जितना लाडली से अपनापन करते जाएंगे… जैसे समझना है कि हम एक नियत संख्या 18 लाख का लक्ष्य बना लिया, अच्छा! हमारा शरीर, शरीर संबंधी भोगों से वैसे ही प्रीता है, हम ड्यूटी की तरह 18 लाख पूरे करें, तो आप निज नहीं हुए। और अभी इसी क्षण से आपके मन में आ गया, ‘नाटक चल रहा है माया का! लाडली! सत्य संबंध तो आपसे ही था, आपसे ही है, आपसे ही रहेगा! आज से मैं स्वीकार करता हूं कि गोरे चरणारविंद के सिवा मेरा कोई नहीं!’ अभी, अभी निज की तरफ आपका प्रवेश होना शुरू हो गया। दोनों बातों पर ध्यान देना है। संख्या पर ध्यान रहा और संबंध बने रहे संसार के, वो संख्या हमारे काम में नहीं आई। और संबंध पर ध्यान रहा, संख्या को भूल गए, तो आप हमारे काम के हो गए हो! समझ रहे? आप चलते रहिए, वो सर्व… जिस चर्चा आएंगी, बरसाने में कमी नहीं रखती, ‘बरसत मेघ, सजत अद्भुत, अद्भुत सुख की वर्षा!’ उनके चरणों से होती रहती है। निश्चिंत रहो! संशय ना करना, पता नहीं जान पाएंगे कि नहीं जान पाएंगे कि हम इनके मंत्र कितना जपें हो, पता नहीं निज मंत्र मिले! आप जब निज हो जाओगे ना, तो निज मंत्र आके आपको हृदय में मिल जाएगा। वही हृदय में, मान लो आप दूर देश में रह रहे, शरीर छूटने का समय, आप निज हो चुके हो, वही गुरु पहुंच जाएंगे, वही मंत्र दे देंगे। वो बात केवल तुम ही जानोगे, समाज थोड़ी जलेगा! इसलिए निश्चिंत रहो!”
“श्री हरिवंश महाराज जी! आपके चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम! महाराज जी! जीवन में राधा नाम लेने से पहले कुछ ईर्ष्यावश या जानबूझकर हुए अपराध, क्या करके प्रायश्चित किया जा सकता है?”
“देखो, अपराध का मतलब होता है अज्ञान स्थिति। किसका प्रश्न है? अज्ञान स्थिति, भूल स्थिति! भूल जो हमें नहीं… मान लो, जानते भी हैं, लेकिन हम कर बैठे हैं, तो जानना भी अज्ञान ही है, उसे ज्ञान नहीं! ज्ञान तो तब माना जाता है, जब हमने जान लिया गलत है, फिर नहीं किया! तो वो जान कर के भी जो गलतियां होती हैं, वो अज्ञान ही है! उसे मान लिया कि हम जान रहे। जैसे स्वप्न में एक और नया स्वप्न देखा कि हम जग गए और फिर कहीं गए थे, वो देख रहे स्वप्न में ही! ऐसे ही तो सब गलतियों को माफ करने के लिए एक ही बात है कि जो हम गलती जानते हैं, उसे दोबारा पुनरावृत्ति ना करें! यही सबसे बड़ा प्रायश्चित है! कि हम उसमें ज्यादा हाय-हाय करने की जरूरत नहीं। पीछे गलती में समय गया, अब हाय-हाय में समय चला जाए! नहीं! ‘राधा-राधा-राधा-राधा-राधा!’ जो गलती हुई, माना गलती हुई, अब आगे वो दोहराएंगे नहीं! अगर फिर कभी हो जाती है, फिर हम उसको फिर, ‘राधा-राधा!’ ये बहादुरों का मार्ग! अब ऐसा नहीं कि तुम बहुत बड़े योद्धा हो, तो तुम्हारे घाव ही नहीं होगा! युद्ध क्षेत्र में आए हो, तो सैकड़ों प्रहार करने वाले हैं, प्रहार करेंगे, घाव हो जाएगा! तो तो आप इतनी ज्यादा माथापच्ची नहीं लड़ाने कि ऐसा क्यों? अच्छा, ये ऐसे बलवान योद्धा, कोई साधारण तो है नहीं! काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ये ऐसे महान योद्धा हैं कि पूरे विश्व को परास्त किए! और आप इनको परास्त करने के लिए हरि के बल से चले, तो ऐसा नहीं कि आप बिल्कुल कोरे निकल जाएंगे, दो-चार तो घाव होंगे ही होंगे! उसी को हम गलती कहते हैं, जहां हम फिसल जाते हैं, उसी को गलती कहते हैं, चूक हो जाती है। तो हमें कोई बात नहीं है! जहां गलती… हमारी बात को अन्यथा ना लिया जाए, जहां गलती हुई है, तो गलती के समय में हम भगवत विस्मृत, इसीलिए गलती हुई है! उसकी मेन कमजोरी, उसकी मेन गलती, हम प्रभु से महत्व हटाकर किसी भोग वस्तु, व्यक्ति पर महत्व कर लिया, तभी हमसे गलती होती है। अब हम उसका सुधार करें, क्या? ‘हाय! हमसे ऐसा क्यों हो गया?’ ये सेकंड गया! अब इसका क्या प्रायश्चित होगा? ‘राधा-राधा-राधा!’ इसी गलती से वहां गलती हुई थी, जो भगवत विस्मरण हो गया! जितनी भी गलतियां होती हैं, उसका सबका कारण मुख्य होता है भगवान का विस्मरण होना, प्रभु का! कहे, ‘हनुमंत! बिपति प्रभु सोई, जब तव सुमिरन…’ अब, अब हमको उसको समय नष्ट नहीं करना कि क्या हुआ था! अब 10 मिनट उसके विषय में चर्चा हुई, उसके विषय में सोच-विचार, तो गया ये समय! यह समय गया! और आगे के लिए संस्कार तैयार हो रहे हैं! हमारे जो 10 मिनट में उसका चिंतन हुआ ना, नवीन संस्कार, वो आगे गिराने के लिए तैयार हो! हमें दुश्मन को मौका नहीं देना, उसकी याद ही खत्म करनी है! जो पीछे हुआ, उसकी याद ही खत्म करनी है! और श्री जी की याद हमें बढ़ानी है! श्री जी की जब याद रहेगी, तो कोई पापी नहीं होगा! यह काम तभी होता है, कोई भी गलती, पहले चिंतन होता है उसका! आप देखना, कोई भी पाप कर्म करने के पहले उसका चिंतन होता है, चिंतन से उसका संकल्प बनता है, संकल्प से फिर क्रिया होती है। इतना लंबा चैप्टर तुम सह गए! अरे, जब स्फुर हुआ था, उसी समय गला दबा देते, तो सब बात बन जाती! तो क्यों नहीं दबा पाए? क्योंकि गला दबाने की ताकत आती भजन से, और वो है नहीं! तो किसी से भी गलती हो सकती है! हो, उस गलती को तो ऐसे मिट्टी डालो, आगे बढ़ो! ‘राधा-राधा-राधा-राधा-राधा-राधा-राधा!’ जहां अगर फिर चूक हो जाए! देखो, इसमें बहुत बड़ी मंजिल है, यह बहुत बड़ी चढ़ाई है! कह दो, ‘आज से हम कसम खाते, नहीं होगा!’ तुम्हारी कसम नहीं चलेगी, जब तक तुम्हारी उसमें सुख बुद्धि, तब तक तुम्हें गिरना ही होगा! जब सुख बुद्धि कैसी बदलेगी? ‘वमन विष्ठा के तर!’ अब जैसे कोई बढ़िया खीर बना, कान में आकर कोई विश्वसनीय आदमी कहते, ‘खाना मत, जहर!’ अब आप नहीं खा सकते, उसमें किशमिश-मिश्री सब पड़े, नहीं! ऐसे गुरुजनों ने बता दिया कि माया जनित जितने भोग हैं, ये सब विष के समान हैं, इनको मत खाना! तो ब्रह्मादिक…”
“… भत भजन का, भगवत प्राप्ति का! और यह हम कभी उपासक के अंदर नहीं चाहते, उत्साह नहीं नष्ट होना चाहिए! 1000 बार गिर जाएंगे, तो 1001 बार फिर हम कमर कसेंगे! इस जन्म में हम प्रिया-प्रीतम को प्राप्त करके रहेंगे, चाहे हर कदम पर हम गिर जाएं, हर कदम पर हम कोशिश करेंगे कि आगे ना गिरे, फिर भी गिर जाएं, फिर बिहारी-बिहारी जाने! हमारे कदम पीछे नहीं जाएंगे! यह बात कर स्वीकार करना है! ‘अब तो गलती हो गई! अब क्या होगा? अब तो जीवन नष्ट हो गया!’ तो क्या मन सिखाएगा? ‘इधर उतरो!’ ऐसा सिखाया? नहीं! हर कोई कह दे कि 100 बार गिर चुके, अब क्या होगा? हम तो 101 के ऊपर कह रहे हैं, फिर भी हम चलेंगे! हमें गलती का बढ़ावा नहीं दे रहे, हमें अपने जीवन को व्यर्थ नहीं जाने देने का उद्देश्य बनाए! उद्देश्य में बहुत बड़ी ताकत होती है! एक संत बहुत निराश हो गए थे! यह वही जानता है जो भगवत मार्ग का पथिक है! बाहर से तो क्या? अच्छा, जैसे मान लो, गृहस्थी में आप 40-50 वर्ष व्यतीत किए, अब आप कम ब्रह्मचर्य हैं, अच्छा है! पर आप उस पीड़ा को नहीं जानते हैं, जो 16, 17, 18, 20, 22, 25 में उसने सही है! क्योंकि उस समय आप विषयों में खेल रहे थे! अब आप पीड़ा अपनी, वो शुभ, जो अशुभ संस्कार हैं, उनकी स… हो, लेकिन वेग तो आप में वो जो, वो तो सब… अब उस उपासक को पूछो, जो बचपन से भगवत मार्ग में उसको सहते चला रहा है! अब 10 वर्ष साव… जरस पिसल गया! अब क्या करें, हो! 10 वर्ष से संयम से चल रहा था, 10 सेकंड में क्या हो गया! अगर उसे आत्मबल नहीं मिलेगा, तो वहीं टूट जाएगा! अब 10 वर्ष चढ़ते हुए, हुए, धम से नीचे आ गया! अब फिर 10 वर्ष इतनी चढ़ाई में लगेगी! इसीलिए सत्संग की अत्यंत अनिवार्यता! एक सेकंड में उसको बलवान बना! ‘कुछ नहीं! कुछ नहीं! सब भ्रम! ये सब असत! तू आगे बढ़! आगे बढ़!’ वो अगला कदम बढ़ा, फिर, ‘अरे! अब तो तुम तो गए, बेकार हो गए, भ्रष्ट!’ ये नहीं! हमें कभी भी कोई प्रिया-प्रीतम से विमुख नहीं कर सकता! जोर लगा के देख लो! तू, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, सब आक्रमण कर! मैं नहीं कहता कि मैं तेरे पर विजय प्राप्त करूंगा, पर मैं जरूर कहता हूं कि श्यामा-श्याम को नहीं छोड़ सकता! जहां भी जाऊंगा, जो भी करूंगा, ‘श्यामा कुंज बिहारी’ बोलूंगा, ‘राधा वल्लभ श्री हरिवंश’ बोलूंगा! तू बिगाड़, बनाने वाला मेरे साथ, बिगाड़! ऐसे लड़ा जाए! ऐसे कोई कह दे कि काम विजय, तो भगवान शंकर की भी समाज भंग कर दी, औरों की तो बात… इसलिए, तो मतलब इस बात को समझना होगा! अब जैसे बाहरी संसारी आदमी है ना, ‘अरे, वो तो…’ अरे भाई, समझो यार! तुम 10 दिन नहीं रह सकते जैसे साधु रहता, 10 दिन! साधु होता को नौटंकी समझा जाता है आजकल! साधु नौटंकी नहीं होती और नौटंकी करने वाला कभी साधु नहीं होता! दोनों बातें अलग-अलग! साधु ऐसी बिल्कुल, चढ़ के, ‘मैं तुरंग पर चली पावक मांय!’ मन को मार! तुम्हें सब सुविधा दे दी जाए, केवल तुम्हारी वासनाओं की पूर्ति में बाधा डाल दी जाए, तो आप छोड़ के भाग जाओगे! छोड़ के रात में भाग जाओगे! बढ़िया कमरा, एसी रूम, बढ़िया भोजन, हर व्यवस्था, चुपचाप भाग जाओगे, कोई जान ना पावे, मुंह ढक के भाग जाओगे! कि मुंह… मतलब रह नहीं पाओगे! और जो डुप्लीकेट जीवन होता है, वो बात अलग होती है! सत्य पर चलने वालों का जीवन सदैव कसौटी पर रहा है! अब उससे अगर कोई चूक हो जाए, संसारी क्षमा नहीं करते! पर साधु हृदय जो होता है, जो चला हुआ है, वो तुरंत घेर लेगा! ‘बिल्कुल नहीं! बिल्कुल नहीं! लड़खड़ा गया ना? मान लो, घुटने भी टेक दिए ना? तू खड़ा हो! खड़ा हो! आगे चल! आगे चल!’ यह वो मार्ग है! घोर वैश्यागामियों को भी परब्रह्म की प्राप्ति! ‘चल, तू आगे बढ़!’ एक बार फिसल गया, क्या? आगे बढ़! तब बढ़ता है! नहीं, अरे, अब तो क्या? संसार तो ऐसा है ना, 50 वर्ष संयम से चला है, एक बार कहीं घुटने टेक दिए, बलवती माया भगवान की है! बड़े-बड़े, शिव, विरंचि का मोह… तो और साधक क्या चीज है! अब सब टूट पड़े, ‘अरे, ऐसा नहीं!’ कोई साधु हृदय साधक ही जानता है कि कितनी चढ़ाई है! सैकड़ों बार फिसलने के बाद अभ्यास होता है कि यहां कितना पंजा जमाना चाहिए, यहां कितना पैर जमाना चाहिए! पहले ही अभ्यास में नहीं पर्वत चढ़ जाता कोई! उसके लिए उसको गिर के ज्ञान आता है! ‘अच्छा! यहां हमसे चूक हो गई! यहां हम इधर देखने लगे, तो फिसल गए! अब नहीं देखना है! अब सीधे चलना!’ फिर आगे कोई मंजिल है, शायद उस स्टेप में गिर जाए! तो साधक को कभी नहीं परास्त होना चाहिए! कोई एक बार में निशानेबाज नहीं बन जाता है! भैया, बंदूक लिया, पकड़ा, सीधे निशाने पर ठोक दिया, ऐसा नहीं! वो अगर ऐसा किया है, तो उसने वर्षों अभ्यास किया है! जन्म-जन्मांतर से जो महात्मा अभ्यास करते चले आ रहे, पता लगा बचपन से ही जितेंद्रिय, बचपन से! वो बचपन से नहीं है, वो कई जन्म से चली आ रही है उनकी अभ्यास साधना की! तो अपने लोग अगर कहीं फिसल जाते हैं, तो डरने की बात नहीं है! हां, प्रभु से क्षमा मांग के फिर आगे बढ़ो! परमार्थ का मार्ग बहुत ही सुदृढ़ विचार वालों का है! जरा सा आकर्षण माया का… सौभरि ऋषि, यही अपने पड़ोस की बात है! पड़ोस की तो है! यही सुन… रख! यमुना के जल में समाधि लगाकर, जमुना जल को बांध कर कि कोई विघ्न ना पड़े, भजन कर रहे! आंख खुली, देखा मछली क्रीड़ा कर रही, मैथुन क्रीड़ा! ‘उनका यह भी कोई विशेष सुख होता होगा!’ अब उसका चिंतन हुआ, भजन छूटा! और बैठे कहां थे? जल के भीतर समाधि लगा के कि कोई विघ्न ना पड़े! अब तपस्या के धनी, उन्होंने कहा, ‘जब सुखाई की याद आई, तो सीधे राजा के पास चलते हैं!’ चक्रवर्ती सम्राट महाराज मान्धाता! और, ‘उनका हमारा मन हो रहा ब्याह करने को! तुम्हारी पुत्री सुना है नवयौवना हो गई हैं, ब्याह करूंगा!’ शरीर में, त्वचा में हरी-हरी उस सेवार लगी हुई है, जैसे मछली के शरीर से आती है ना गंध, ऐसे पानी की गंध! अब राजा कुछ बोल तो सकते नहीं, तुरंत श्राप दे! तो उनका, ‘महल में जाओ, जो तुम्हें पसंद कर…’ 50 पुत्रियां थीं! तो समझ गए सौभरि ऋषि कि क्यों ऐसा बोल रहे! उन्होंने वो देव रूप धारण किया और मंत्री ने जाकर कहा, ‘महाराज! सौभरि पधार रहे हैं! जो राजकुमारी चाहे, उन्हें पति रूप में वरण कर ले!’ पचासों ने देखा, दौड़ पड़ी! ‘हम पति!’ पचासों से ब्याह कर लिया! पचासों से! पूरे से! तब उन्होंने जब पचासों से ब्याह किया, फिर जब उन्हें होश आया, तब उन्होंने एक श्लोक का गान किया, ‘संगम तत मिथुन वति नाम मुमुक्षु, सर्वात्मक रास चि मनती से युजी तद वृति सा चेत प्रसंगा!’ परमार्थ के पथिक को ध्यान रखना चाहिए, कभी भी किसी को मैथुन धर्म से युक्त जो है, उस दृश्य को नहीं देखना चाहिए और ऐसे लोगों से अपना संबंध नहीं बनाना चाहिए, मित्रता नहीं बनानी चाहिए, सदैव अकेला रहना चाहिए और इंद्रियों को बहिर्मुखी महात्माओं का नहीं, तो एकांत में अनंत महिमाशाली प्रभु के नाम-रूप का चिंतन करें! तो उनको ध्यान आया कि मैं फंस गया! या बहुत बुरा फंस गया! ऐसा नहीं कि ये माया… अपने लोग तो मच्छर हैं इन महापुरुषों के सामने! दो सेकंड भी जल में ऐसे नहीं बैठ सकते बीच में कि ऐसे… अगर, तो नीचे डूब जाएंगे! और एक मिनट बाद सांस ना ली, तो मर जाएंगे! वो तो समाधि में बैठे थे, जल में ही बांध करके! उनको भी माया ने डिगा! उपासक को कभी घबराने के… हम बढ़ावा नहीं दे रहे, अभी बात समझ रहा? हम बढ़ावा नहीं दे रहे विषय की तरफ, हम भगवत प्राप्ति के लिए उत्साहहीन नहीं होने देंगे! चाहे जितने बुरे हैं, पर अपने प्रभु भूखे हैं! एक दिन ये बुराइयां नष्ट होंगी, क्योंकि जैसे अंधकार में हम फंस गए हैं, पर भरोसा सूर्य का किया, तो जब सूर्य उदय होगा, तो अंधकार का नामो-निशान नहीं रहेगा! भगवान मंगल भवन हैं, भगवान सर्व बलशाली हैं! जिस समय उनकी कृपा कोर हमारे ऊपर होगी, उस समय हम निर्विकार होकर उनके परम पावन भक्त बन जाएंगे! भगवान का भरोसा हम छोड़ने वाले नहीं! उनका नाम छोड़ने वाले नहीं! चाहे जैसी… तो जब ऐसी वृत्ति आएगी, तो ऐसे प्रभु ले लेते! ‘करौं सदा तिनकी रखवारी, जिमि बालक राखै महतारी!'”
(संगीत)
“श्री हरिवंश गुरुदेव! मैं हरिदासी संप्रदाय से दीक्षा लेना चाहता हूं, क्योंकि मैं हरिदास जी को गुरु रूप से देखता हूं, लेकिन जब भी मैं स्थान में जाता हूं, तो मुझे कोई सत्संग नहीं मिल पाता। मैं सत्संग आपका सुनता हूं।”
“किसका है?”
“मेरा मन राधा रानी के नाम में लगता है।”
“देखो, बात ये समझनी है कि जो स्वामी जी की उपासना है ना, श्यामा-कुंज, ये लोक धरातल से बहुत ऊंचाई पर है! मान लो आप टटिया स्थान जाओ, अपने में रंगे मिलेंगे! तोसे थोड़ी मतलब है उन महात्माओं में! इतने सामर्थ्य… उन, उनके चरणों का आश्रय मात्र ले लोगे, तो मन-बुद्धि को श्यामा प्यारी कुंज बिहारी में लगा देंगे! नहीं, हमारे गुरु जी कभी प्रवचन नहीं करते महाराज जी! केवल उनके चरण आश्रय से ही सारी बात समझ में आ गई! नित्य विहार की, प्रिया-प्रीतम! कभी बैठल के, ऐसे जैसे हम आपको समझा रहे, कभी बोलते नहीं! कभी नहीं बोलते! कभी कोई बात भी अगर सेवा में जब थे, कोई बात भी, तो शब्द दो-शब्द से बस! हर समय निरंतर प्रिया-प्रीतम में रमण! तो ये कोई खास बात नहीं कि वहां सत्संग नहीं होता, तो हम कैसे समझ पाएंगे? नहीं-नहीं! ‘कुंज बिहारी श्री हरिदास’ जपो, अपने आप सब समझ में आ जाएगा! केलीमाल जी का पाठ करो और रसिकों का संग करो! चरण रज का सेवन करो महात्माओं के! ये सामर्थ्यशाली महात्मा हैं! इनके वचनों की तरफ मत देखो! हां, इनकी चरण रज की तरफ देखो! इनकी चरण रज में सामर्थ्य है कि श्यामा प्यारी कुंज बिहारी से अनुराग हो जाएगा! प्रवचन की जरूरत ही नहीं!”
(संगीत)
“हां! देखो, समझने की जरूरत नहीं! जब प्यार हो गया, तो समझा नहीं जाता और जब समझ होती, तो प्यार नहीं होता! बुद्धि काम करती, तो ये डिपार्टमेंट जो दिल का है ना, वो छुपा रहता है और जब दिल काम करता है, तो डिपार्टमेंट बंद हो जाता है! दोनों तुम मत चलाओ, इसीलिए तुम परेशान हो रहे हो! तुम्हारे दोनों चल रहे हैं! दोनों मत चलाओ! एक डिपार्टमेंट को गौण करो, एक प्रधान करो! जब दिल ने स्वामी हरिदास जी को पसंद कर लिया, तो फिर, अब कोई परवाह नहीं! नरक मिले, स्वर्ग मिले! क्या बोलूं, क्या पढ़ूं, क्या समझूं? सब छोड़ो! जो श्री हरिदास चाहेंगे, वही होगा! ‘श्री हरिदास, श्री हरिदास, श्री हरिदास!’ रटो! हो जाएगा सब काम! अब पसंद है, यह देखना वो चाहते, सुनना वो चाहते हो, ब्याह उससे करना चाहते, यह सब बातें ठीक नहीं! जिससे ब्याह करे, वही घर पसंद होना चाहिए और उसी के सब स्वभाव और आचरण पसंद होने चाहिए! एक का वरण करो, मन, वचन, कर्म से उसकी मित्रता को स्वीकार करो, बात बन जाएगी! समझ में आया?”
“महाराज जी! हम अगर श्री चतुरा जी में दिए गए पदों के अनुसार से लीला बनाकर स्मरण का अभ्यास कर सकते हैं? उस समय, उस समय में हमें साधना में सफलता मिलेगी क्या? पूरे शरीर में सखी भाव बनाना मुश्किल लग रहा है! पूरे शरीर में?”
“पूरे शरीर का त्याग होता है, यार! कुछ लोग लेते-लीपते… ये सब ड्रामा! एक स्थिति परमहंसों की अंतिम भूमिका, ये जो सखी भाव है, बड़े-बड़े परमहंसों से भी अगोचर स्वरूप! जैसे दास्य, शांत भाव, दास्य भाव, सख्य भाव, वात्सल्य भाव, गोपी भाव, सहचरी भाव! चरम अवस्था का स्वरूप! ये देह भाव के चिंतन से थोड़ी होता है कि हम ऐसे… नाम जप करो, मंत्र जप करो, सेवा करो, गुरु प्रसाद से धीरे-धीरे जब देह भाव से ऊपर स्थिति, ‘पांच भूले देह, छठे भाव…’ नारायण आगे-आगे तब बढ़ती-बढ़ती चली जाएगी! नाम जप करो, खूब भजन करो! पहली बात रखो कि शरीर के जो निषिद्ध भोग हैं, उनको स्वीकार मत करो और नाम जप करते हुए साधु सेवा! जैसे वृंदावन आए हो, तो यहां पशु-पक्षियों की कभी 10-20 रुपए के चने ही लेकर ऐसे बंदरों को डाल दोगे ना, बहुत बड़ी बात है!”
“प्रभु जी! कल मैं शिवा कुंड गया था ना, तो अंदर को चना खिलाया अपने हाथों से!”
“नहीं, हाथों से काट ले!”
“नहीं कभी, मान लो उनको गुस्सा आ गया, तो काट ले! तुम कहोगे कि बाबा ने शिक्षा दी थी, इसलिए का… दूर से ऐसे! मतलब हम इसलिए कहते हैं ना कि गृहस्थ हो, कुछ ऐसे सेवा कर दी और नाम जप करो! भई, ये भाव, सहचरी भाव, ऐसे नहीं है कि हम ऊपर से, ये ऊपर वाला नहीं! स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, तीनों शरीरों का त्यागी, तब सहचरी भाव की तरफ प्रवेश पाता है! तुम समझते हो, स्थूल शरीर को सहचरी भाव! स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, तब उसे भाव दे! ये बहुत बड़ी अवस्था है! इसीलिए गुरु प्रसाद से आती है, ये ऐसे मनमानी आचरण करने से नहीं आते! नाम जप करो, भजन करो और चौरासी जी या केलीमाल जी, इनके पदों के चिंतन करने का अधिकार अभी नहीं है! अभी तो केवल गान करो, मंत्र जप करो, सेवा करो! कभी-कभी भागवत पढ़ा करो, श्रीमद् भागवत! वह आपके अंदर ज्ञान-विज्ञान लावे! ‘प्रथम सुने भागवत भक्त मुख, भगवत बाणी!’ गीता जी सुनो, भागवत सुनो, चतुरा जी का गायन करो! चिंतन करने का अधिकार हो आगे चलकर, स्वयं चतुरा जी देती हैं, आचार्य देते हैं, तब बात समझ में आती है! अभी पुरुष शरीर में हम हैं, अभी गलत भावना बन सकती है! पहले जो हमारी आज्ञा आचार्यों की है, वह माननी चाहिए! शरीर भाव पहले गलित होना चाहिए! अभी तो पुरुष शरीर में, अगर कहीं ऐसी-वैसी बात मन में अटक गए, तो फिर गड़बड़ हो जाएगा! आराध्य देव के प्रति दोष दर्शन होने लगेगा!