1 Ekantik Vartalaap Hindi | एकांतिक वार्तालाप हिंदी

अंकित जी, सदगुरुदेव भगवान की जय!

प्रश्नकर्ता: गुरुदेव भगवान, इस पापी जीव से आपकी आज्ञा का उल्लंघन बहुत बार हुआ है। कृपया करके मुझे दंड दें और ऐसा अवसर दें कि आगे से ऐसा नहीं हो। गुरुदेव, मैं हर आज्ञा का पालन…

गुरुदेव: किसका प्रश्न है? हां, हजारों बार कसम खाओ तो भी वही बात होगी। समझो, जब तक हम स्वयं सुधरना नहीं चाहेंगे, तब तक हमें कोई सुधार नहीं सकता। जिसको हम जानते हैं गलती है, वो हमसे पुनः इसलिए होती है कि मानते ऊपर से गलती, हृदय से मानते कि इसमें सुख है। अंदर की बात है ये। ऊपर से हम कहते हैं, “अधर्म है, पाप है, गलत है, नहीं करूंगा, नहीं करना चाहिए।” अंदर से है कि सुख है। अब तुम्हें कोई नहीं रोक सकता। हजार बार गलती मानो, फिर ऊपर हजार के ऊपर चलेगी बात, वही होगा।

जिस दिन आपके हृदय में यह बात आ गई कि, “देख लिया, कहीं सुख नहीं,” अब आज से मैं नियम लेता हूं अंदर से, भगवान के बल पर। मैं ऐसी जगह नहीं जाऊंगा जहां भ्रष्ट हो जाऊं, ऐसे दृश्य नहीं देखूंगा जिससे मैं पतित हो जाऊं, ऐसा भोजन नहीं करूंगा, ऐसा संग नहीं करूंगा। और खूब नाम जप करो, यही सुधार है। दंड से सुधार नहीं होता। मान लो किसी को, जैसे आप तीन दिन व्रत रह लो, ठीक है। तीन दिन बाद, चौथे दिन जब शुरू करोगे तो पांचवे दिन फिर वही रंग आ जाएगा। इससे कोई लाभ नहीं।

ये तो मतलब देहाभिमान जनित ये सब बातें हैं। मूल बात को अगर समझ लोगे तो खाते-पीते रहो, उचित जीवन व्यतीत करो। ये शरीर… अब जैसे हठ करके आप बड़ी बढ़िया गाड़ी ले ली और उसमें पेट्रोल मत डालो, तो आप गाड़ी रखे, उससे कुछ थोड़ा होगा? उसमें डालना ही पड़ेगा। ऐसे ये गाड़ी आप नहीं हो, आपकी जीवन यात्रा है। इसमें भोजन समय से, उचित-उचित पानी दे दो, उचित विश्राम, उचित इससे शारीरिक श्रम करवा लो। बस, आप अलग रह कर के रहो, यह सब हो रहा है।

आखिरकार हर कोई जानता है कि हमारी गाड़ी है पर मैं गाड़ी तो नहीं हूं ना? इतना तो सब कोई जानता है। अगर यही बात इसमें समझने लगो तो सुधार होना शुरू हो जाएगा। गाड़ी हमारे हाथ में है, ना कि हम गाड़ी के हाथ में हैं। और उसकी भी एक सीमा है। उसी सीमा से चलोगे तो बच जाओगे। सीमा से तो फिर कंट्रोल आपके हाथ में नहीं रहेगा। सीमा के अंदर, सिद्धांत के अंतर्गत शरीर रूपी यात्रा को चलाओ। उचित आहार, उचित विहार, उचित शयन, उचित बर्ताव। गंदी बातें जो निषेध की जाती हैं, उनको स्वयं छोड़ो। जब हमारा हृदय आकर्षित होता है किसी गंदी बात के लिए तो मन हर्षित होता है। बस, समझ लो कि यह हर्षित होना हमारे लिए पतन का कारण है। उसी समय बुद्धि को सशक्त रखो, “नहीं, ऐसा नहीं करेंगे, कुछ भी कर ले, नहीं।” और उधर कदम मत बढ़ने दो। भगवत स्मरण रफ्तार से शुरू करो, बच जाओगे।

चाहे इतना दंड दें, एक बार पुलिस में पीटने के बाद उसको अभ्यास हो जाता है कि बहुत-बहुत इतने पिटे, और वह अपने आचरण को सुधार नहीं पाता। इसलिए अपने को दंड की तरफ वृत्ति नहीं रखनी, अपने को सुधरने की तरफ वृत्ति रखनी है। वह आप स्वयं कीजिए। वो अपने गुरुदेव के वचन, संतों के वचनों का भरोसा, आश्रय लेकर हम माया से पार होते हैं।

दंड विधान तो ऐसे एक विनोद समझो। दंड विधान से कोई सुधरता नहीं है। सुधरता है स्वयं की ग्लानि से। जब उसको ग्लानि होती कि, “मैंने गलत किया, इतना हमें भगवान का प्यार मिल रहा है, संतों का प्यार मिल रहा, फिर भी मैं नीचे…” ऐसे अंदर उसकी जो पश्चाताप अग्नि जलती है, वो उसका सुधार करती है। बाहर से दंड भोग ले, अंदर से उसमें सुख बुद्धि, फिर पाप हो जाएगा। फिर वही, कितनी बार कसम खाते हैं लोग, कितनी बार, फिर वही पतन हो जाता है। तो समझे बच्चा? हां, सही-सही से चलो। जो चीज समझते हो कि नहीं करना चाहिए, अंदर से लड़ो और वो मत करो। और नाम जप करो। कोई नशा-वशा मत करो, नहीं तो नशा… आजकल नए बच्चे ये सब शराब और… आपको ऐसे खिलवाड़ समझते हैं। वो बुद्धि भ्रष्ट कर देती है। जीवन ऐसे हंसते-हंसते व्यर्थ में नष्ट कर रहे हैं लोग। व्यर्थ में, मनोरंजन में अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं। अरे, देश के लिए जीवन नष्ट करो, समाज के लिए अगर जीवन व्यतीत करो, भगवान के लिए, तो जीवन का कुछ उद्देश्य समझ में आवे। ऐसे मनोरंजन में जीवन नष्ट कर रहे!

प्रश्नकर्ता: गुरुदेव, मेरे एक मित्र ने मुझे विट्ठल रुक्मिणी जी की मूर्ति दी थी भेंट स्वरूप। अब गुरुदेव, उसी की मैं प्रिय-प्रीतम भाव से सेवा करता हूं। क्या मैं सही कर रहा हूं?

गुरुदेव: हां, किसी भी तरह से, किसी भी भगवान के नाम-रूप में जुड़ो, आपका मंगल ही होगा। सब भगवान हमारे ही हैं। सब भगवान के नाम हमारे हैं। खूब अच्छे से लगो, पहले लगो तो।

प्रश्नकर्ता: श्री हरिवंश! गुरुदेव भगवान! गुरुदेव भगवान, सभी निज परिकर के वार्तालाप में यही जाना कि सबको अखंड ब्रजवास आपके संकल्प और कृपा से ही मिला है। महाराज जी, हे गुरुदेव, हमें भी आपका ऐसी कृपा प्राप्त हो कि हम भी वृंदावन…

गुरुदेव: यह उनकी भावना है। हमारा भी वृंदावन वास श्री जी की कृपा से हुआ है, तो हम किस पर कृपा कर सकते हैं? उसी कृपा समुद्र के प्रवाह में जिसने आश्रय ले लिया, वो इसमें… उनका भाव, उनका भाव गलत नहीं कहते।

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।

मान लो कोई भावना में देख रहा हो, “मेरे भगवान बैठे हुए हैं,” उसको वैसे ही अनुभव होगा। और अगर हमसे पूछोगे तो तिनका, जो बयार के बस हवा तिनका को उड़ा कर के ऐसे अच्छी जगह रख दिया तो तिनका का क्या पुरुषार्थ? और नाली में गिरा दिया तो तिनका का क्या पुरुषार्थ? ऐसे कृपा रूपी हवा ने हमें वृंदावन वास में बैठा दिया। हम तो तिनका हैं। हमारी क्या सामर्थ्य कि हम… ना खाने को, ना पीने को, ना वास, ना कोई व्यवस्था। ये तो महारानी जी की, लाडली जी की कृपा, वो ऐसे व्यवस्था, ऐसे रख रहे तो हमको रख रहे हैं, सबको रख रहे हैं। जो भाव से उनसे जुड़े, यह उनका महल है। वही पास देते हैं। किसी और के पास से नहीं।

जिनको वृंदा विपिन है कृपा, तिनही की होए। वृंदावन में तव तो पाहि सोय।

अब जिसने गुरु को श्री जी मान लिया है, प्रभु मान लिया है, वो अपनी भावना कर रहा है, तो श्री जी उनकी उसी भावना से उनकी पूर्ति कर रहे हैं। कर श्री जी रहे हैं। यहां अगर समझो कोई सामर्थ्य है, तो सच्ची कहते हैं तिनके की जैसे कोई सामर्थ्य नहीं, ऐसे शरीर की या शरीर धारी की कोई सामर्थ्य नहीं। यह श्री जी की कृपा से चल रहा है।

जो कुछ होए सब तिहारी कृपा से, बिहारी बिहारी।

यह भ्रम है कोई व्यक्ति, कोई शरीर धारी कुछ कर सकता है। ये केवल लाडली लाल की कृपा और उसी कृपा का परिचय, उसी कृपा की धारा में आपको डुबोने के लिए ये सब बातें हो रही हैं। उनका नाम, रूप, लीला, धाम… अगर जरा भी कृपा उनकी ना हो तो कोई छू नहीं सकता, ‘राधा’ नहीं बोल सकता। कोई धाम नहीं आ सकता, कोई प्रिया-लाल की चर्चा ना कर सकता है, ना बोल सकता है। अगर ये है तो उनकी हमारे ऊपर बहुत कृपा है। और उस कृपा में हम डूबे। जितना मिला है, उतने की बार-बार बलिहारी जाएं तो आगे देने वाला अपने आप और दे देगा। जब वो देखता है जितना दिया है, उसका ही आदर नहीं है, तो फिर ₹100 दिया, बर्बाद कर दिया, तो ₹1000 काहे को देगा पिता? वो तो सर्वज्ञ देख रहा है ना कि 100 तो खर्चा नहीं कर पाया, इससे हजारों-लाख की चेक दे दे तो बर्बाद ही करेगा। अगर 100 का ठीक प्रयोग हुआ है तो हजार मांगने नहीं पड़ेंगे, वो सर्वज्ञ है।

ऐसे ही आपको जो नाम मिला, मंत्र मिला, उपासना मिली, आप उसमें कितना तन्मय हैं? अगर नहीं, तो फिर आगे की बात मांग ही क्यों रहे हो? पहले जो मिला है उसका स्वाद लो, उसी में धाम और नाम सब प्रकाशित हो जाएगा। हम आगे-आगे मांगते चले जाते हैं, जो मिलता है उसका स्वाद नहीं ले पाते। तो यह बात समझना है, हमें अपने उदार स्वामी से मांगने की जरूरत नहीं। हमें जो मिला है उसका आदर और उसकी कृपा मनाने की जरूरत है। अगला सोपान अपने आप वो कृपासिंधु है, वह कर देंगे।

प्रश्नकर्ता (गगन पांडे जी): श्री सदगुरु भगवान के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम। भगवान, आपके श्री मुख से प्रवचन सुनते-सुनते मालूम पड़ गया है कि हमारे सारे प्रश्नों का जवाब ‘राधा’ नाम ही है। भगवान, अब दुनिया से विश्वास खत्म हो रहा है। जब से सुना है कि शरणागति में बल होता है, तब से बीज नाम जपने का बहुत मन करता है। भगवान, थोड़ा-थोड़ा नाम जप करने का अभ्यास भी हो चुका है। कभी-कभी मन करता है सांस भी खाली ना जाए। परीक्षा चाहे ले लीजिए।

गुरुदेव: हां, बिल्कुल नहीं, बहुत सुंदर बात है बच्चा। आदर तुम्हारी इस बात का, पूरा हम आपको सहयोग करेंगे। जो भी हमें गुरु प्रसाद से है, आप चलो। अब यह कि थोड़ी ये जिम्मेवारी इन लोगों को दी, ये लोग बातचीत करके देख लेते हैं। कुछ समस्याएं कुछ… तो उनका सुलझाते हैं। कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनको तुम्हें सुलझाना होगा, कुछ समस्या होती है जिनको इनको सुलझाना होगा। आपको ऐसे-ऐसे… और दोनों सुलझ गए, मंत्र ले लो, आराम से भजन करो। हम तो बैठे हैं, कोई इसमें… नहीं लगता, कोई इसमें ऐसा नहीं कि इतनी फीस जमा करो। हां, यह जरूर है कि मंत्र उसी को लेना चाहिए जिसका उद्देश्य बन जाए भगवत प्राप्ति, नहीं तो अपराध बनता है। मंत्र ले लिया, मनमानी आचरण कर रहे हैं, फिर ठीक… ऐसे मनमानी आचरण हो रहे हैं तो एक जगह बकाया, जहां जाने से ठीक हो जाओगे: संत समागम, गुरु चरण आश्रय। अगर गुरु चरण आश्रय लेकर मनमानी आचरण हो गए तो फिर कहां…

दाढ़े गए भजी पानी में, और पानी में आग लगे तो क्या कीजे? आग का जला हुआ भागे पानी में, पानी में आग लग गई तो अब क्या करें?

ऐसे ही संसार का जला हुआ गुरु चरणों में गया, वहीं भी मनमानी आचरण करके, वहां भी प्रकृति विरुद्ध भाव… अब क्या करें? अब तो कहीं ठोर नहीं रह जाएगी। इसलिए गुरु बहुत सोच समझ के बनाना चाहिए। जब हमारे अंदर ये बात आ जाए कि हम गुरुदेव की आज्ञा का पालन कर लेंगे। अच्छा, वो कोई ऐसी आज्ञा देंगे नहीं जो आप पालन ना कर पाओ क्योंकि वो सर्वज्ञ पिता हैं, भगवान ही तो गुरुदेव हैं। वो ऐसी आज्ञा नहीं करेंगे कि आप ना कर पाओ। बालक को पिता उतनी ही आज्ञा करता है जितना वो कर सकता है। अगर आज्ञा ज्यादा कभी हो गई तो सहयोग देता है बैठ कर के, “देखो हम तुम्हारा काम करवाते हैं, वो कॉपी हमें लाओ, ये हम थोड़ा लिखते हैं, तुम इसे पढ़ो।” देखो, वो सहयोग करके पूरा चैप्टर तैयार कर देगा क्योंकि पिता है। ऐसे ही भगवान या गुरुदेव, “तुम यह करो, देखो बाका हम करते हैं” और फिर हम आपको आगे खड़ा कर देते हैं परमार्थ में। ऐसे आप चलो, इन लोगों से बात कर लो, जैसा निर्णय करें वैसे चलो।

प्रश्नकर्ता (हिमांशु जी): महाराज जी, आपका स्वास्थ्य कैसा है?

गुरुदेव: किसने आपने पूछा? हां, थोड़ा गड़बड़ रहता है। वो श्री जी की कृपा से चलता रहता है। श्री जी नहीं जानती क्या? अगर उनको चलाना है तो यही चलाओ, तो ‘करतुम, अकरतुम, अन्यथा करतुम’। और नहीं चलाना है तो किडनी की माला जोड़ दो तो फेल हो जाएगा, नहीं फेल हो जाएगा? वो तो… हमें अच्छा, ये ठीक है, अपने कष्ट भोग लिए, खून थोड़ा फिल्टर हो गया, एक दिन चला, फिर दूसरे दिन फिल्टर हो गया। ऐसे चल… और हमें कोई कष्ट नहीं, कष्ट होते हुए भी कोई कष्ट नहीं, क्योंकि श्री जी का आश्रय है। अगर श्री जी का आश्रय ना होता तो बहुत बड़ी दुर्गति है इस रोग में। जैसे समुद्र में फेंक दिया गया, ना नाव है ना तैरना आता है, ऐसी स्थिति इसकी है। अब अगर भजन का पूर्वाभ्यास ना हो तो भजन थोड़ी हो सकता है। जैसे आप बैठे, ये सब दर्द, क्योंकि किडनी तो उसके ऊपर भार… अच्छा लेटो, थोड़ी देर बाद दर्द क्योंकि वो मतलब सामर्थ्य नहीं… लोग कहते हैं ना, “देखेंगे तुम्हारे गुर्दे में कितना पावर है,” पावर हीन हो गए गुर्दे। पर यह कृपा है कि हर कष्ट में लाडली जू का दुलार, कृपा, प्रसाद, तो ये कष्ट कोई महत्व नहीं रखता है।

और जैसे कि अब जाना है, तो इसमें भय नहीं लगता क्योंकि श्री जी के पास जाना है, अपने घर जाना है। अगर ये होता “कहां जाना है? हमारी पता नहीं क्या गति होगी?” तो परेशान हो जाएं। दोनों समस्याओं का समाधान हो गया है। गाड़ी अपने घर पहुंच चुकी, अब इसमें आग लग जाए तो कोई बात नहीं है। घर वालों से अपना बातचीत हो गई है तो अब कोई परेशानी नहीं। अब जैसे यह हो कि आपको अमुक जगह जाना, परिचय है नहीं, तो घबराहट पैदा हो जाएगी। रास्ते में गाड़ी बिगड़ गई तो घबराहट पैदा हो जाएगी। श्री जी ने ठिकाने पर लाके गाड़ी खराब की है तो कोई परेशानी नहीं।

प्रश्नकर्ता (श्रुति शर्मा जी): जय जय श्री हित हरिवंश! गुरुदेव भगवान! गुरुदेव, मेरे मन को एक बार डांट लगा दीजिए। गुरुदेव, मुझे क्षमा कर दीजिए, आपकी शरणागत होकर भी कभी-कभी आज्ञा का उल्लंघन हो जाता है।

गुरुदेव: हां, अपने डांट से बनेगा, बाहरी डांट से नहीं। जब अपने धिक्कार देते हैं ना अंदर से, “अरे नीच, तू हमें बार-बार ऐसा…” तो वह सुधरता है। नहीं तो बहुत ये विचित्र कोटि का देवता है, बाहरी डांटों से नहीं सुधरता है। अंदर की डांट से, जब आप इसे धिक्कारेंगे और सावधान रहें। ये कभी भी सलाह दे तो सलाह को जांच करें कि सही दे रहा है कि नहीं। अगर दे रहा तो उसी समय डांट लगाएं इसको। धीरे-धीरे अंतर्मुखी देखती रहेंगी, यह सुधर गया तो साधना बन गई है, बिगड़ गया तो साधना बिगड़ गई। ऐसा है। नाम जप करते रहें…

प्रश्नकर्ता: भगवान के चरण में… बाबा, मैं रामानुज संप्रदाय से दीक्षित हूं। मैं भी किशोरी जी की दासी बन, भजन करके जुगल की लीला दर्शन करना चाहता हूं। आपकी एक नजर, कृपा दृष्टि से कृपा करें मुझ पर।

गुरुदेव: कृपा दृष्टि का तात्पर्य कोई बाहरी देख लेना नहीं होता है। कृपा दृष्टि का तात्पर्य होता है कि जो अकृपा है उससे हम हट जाएं। शरीर का राग, शरीर के भोगों में सुख बुद्धि, शरीर संबंधियों में स्नेह बुद्धि, यही अकृपा है। इससे हट जाओ तो आपको कृपा दृष्टि मांगनी नहीं पड़ेगी, आप कृपा स्वरूप प्रभु की कृपा की धारा में बह जाएंगे। और यह हमने पकड़ा है, इसलिए हमें छोड़ना पड़ेगा। यह हमने पकड़ा है: शरीर का राग, शरीर के भोगों का राग और शरीर संबंधियों का राग। बस, इसी बंधन से नहीं छूट पाते हैं। चाहे जितना प्रवचन करो, चाहे जितना प्रवचन सुनो, घूम-घूम करके हम इसी बंधन में बंधे रहते हैं। हम अविद्या के नशे में खूंटे से नाव खोलना भूल गए हैं, मेहनत खूब कर रहे हैं, एक इंच नाव नहीं चल रही है। यही खूंटा: शरीर राग, देहाभिमान, कर्तृत्व, भोक्तृत्व भाव, शरीर के संबंधियों का स्नेह, यही खूंटा है। इसी में हम बंधे…

जड़ चेतनहि ग्रंथि पड़ गई जदपि मृषा, छूटत कठिन…

संतों की, शास्त्रों की और भगवान की, तीनों कृपा का एक ही फल है कि हमारा शरीर अभिमान गलित हो जाए, हमारा शरीर राग मिट जाए, भोग बुद्धि बदल जाए और हमारे सगे-संबंधी, स्नेही, प्रभु लगने लगे। बस, हो गया सब। अब ऐसे हम जैसे दुर्गंध युक्त पदार्थ ऐसे लेकर अपनी कांखी में रख लें और सब लोगों से प्रार्थना करें कि, “कोई दुर्गंध हटा दो, आप सब कृपा करो, दुर्गंध हटा दो।” कैसे हटेगी? आपने दबा के रखा है, उसे फेंक दीजिए। दुर्गंध यह राग आपका पाला हुआ है, आप ही छोड़ना पड़ेगा। इसीलिए भगवान कहते हैं, आप अपने द्वारा उद्धार कीजिए अपना। यह आपका बंधन है, आपने पकड़ रखा है इसे, किसी ने बांधा नहीं है। ‘यद्यपि मृषा है’ पर आपने पकड़ रखा है इसलिए छोड़ना पड़ेगा। और कृपा दृष्टि तो प्रभु की, संतों की, शास्त्र की आपके ऊपर है। अगर कृपा दृष्टि ना होती तो भगवत मार्ग ना मिलता, संतों का समागम ना मिलता। अब आप ऐसी अपने ऊपर कृपा दृष्टि कर लो कि शरीर का राग छूट जाए, देहाभिमान गलित हो जाए, प्रभु के स्मरण के सिवा कुछ याद ना रहे। यह सार बात है।

प्रश्नकर्ता: बाबा, सब में राधा वल्लभ है, यह बार-बार मन को समझाने के बाद भी सब में दोष दर्शन होता है। ये कैसे हो सब में राधा वल्लभ ही दिखे?

गुरुदेव: जब तक हमारा चश्मा हरा चढ़ा रहेगा तो हरा ही संसार दिखाएगा, लाल चढ़ा रहेगा तो लाल दिखाएगा। अभी हमारा चश्मा त्रिगुणात्मक माया का चढ़ा है, त्रिगुणात्मिका: सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण। कभी अच्छे भाव आते, कभी भोग बुद्धि आती, कभी हिंसा बुद्धि आ जाती, तीनों गुणों का प्रभाव है। जब हमारे अच्छे भाव आएंगे तो यह बात अच्छे से चलने लगेगी, “भगवान सब में हैं” सात्विक भाव में। जब रजोगुण भाव आएगा तो भगवत भाव हट जाएगा, भोग बुद्धि हो जाएगी। और जब तमोगुण भाव आएगा तो प्रमाद, मूढ़ता और हिंसात्मक, द्वेष वृत्तियां, दोष दर्शन, यह सब… अभी हम गुण के चक्कर में हैं। गुणातीत बनने के लिए निरंतर भगवत स्मरण की आवश्यकता है। गुण हममें नहीं है, अंतःकरण में गुण का प्रभाव कभी भगवद अंश पर नहीं पड़ सकता, वह निर्विकार, चिदानंदमय, अमल है। वो तो अंतःकरण में जो हमारा तादात्म्य है, वही हमें गुण प्रभाव से प्रभावित करता है।

यह बात समझकर तादात्म्य हटाने के लिए बीच में नाम को रख लें। अपने और अंतःकरण के बीच में नाम, तो नाम क्या है? वो प्रकाश करता। प्रकाश में पता चलता “मैं कहीं नहीं बंधा हूं।” गोस्वामी जी कह रहे हैं:

राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजिआर।

अगर बाहर भी प्रकाश और अंदर भी प्रकाश चाहते हो तो नाम को रख लो, ‘राधा राधा राधा राधा…’ और जैसे ही प्रकाश में आपकी दृष्टि हृदय की खुलेगी तो आपको दृश्य दिखाई देगा, भले बाहर का ऐसा, लेकिन उसमें यही अनुभव होगा, प्रभु ही प्रभु विराजमान हैं, दूसरा कोई नहीं। अभ्यास करते रहो। जहां दोष दर्शन हो, वहां प्रभु को प्रणाम करो कि, “आपकी माया के कारण हम आपको नहीं पहचान पा रहे हैं।

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