श्री हित चतुरासी जी पद 1
जोई-जोई प्यारौ करै सोई मोहि भावै,
भावै मोहि जोई सोई-सोई करें प्यारे |
मोकों तौ भावती ठौर प्यारे के नैनन में,
प्यारौ भयौ चाहै मेरे नैंनन के तारे ||
मेरे तन मन प्राण हूँ ते प्रीतम प्रिय,
अपने कोटिक प्राण प्रीतम मोसों हारे |
जै श्रीहित हरिवंश हंस-हंसिनी साँवल-गौर,
कहौ कौन करै जल-तरंगनि न्यारे ||
श्री हित चतुरासी जी पद 4
आजु तौ जुवति तेरौ, वदन आनन्द भर्यो,
पिय के संगम के सूचत सुख चैंन ।
आलस वलित बोल, सुरंग रँगे कपोल,
विथकित अरुण उनींदे दोऊ नैंन ॥
रुचिर तिलक लेश किरत कुसुम केश,
सिर सीमंत भूषित मानौं तैं न ।
करुणाकर उदार राखत कछु न सार,
दसन-वसन लागत जब दैन ॥
काहे कौं दुरत भीरु, पलटे प्रीतम चीर,
बस किये श्याम सिखै सत मैंन ।
गलित उरसि माल सिथिल किंकिनी जाल,
जै श्रीहित हरिवंश लता-गृह सैंन ॥
श्री हित चतुरासी जी पद 5
आजु प्रभात लता-मंदिर में,
सुख बरसत अति हरषि युगल वर ।
गौर-श्याम अभिराम रंगभरे,
लटकि-लटकि पग धरत अवनि पर ॥
कुच-कुमकुम रंजित मालावलि,
सुरत नाथ श्रीश्याम धाम धर ।
प्रिया प्रेम के अंक अलंकृत,
चित्त्रित चतुर शिरोमनि निजकर ॥
दम्पति अति अनुराग मुदित कल,
गान करत मन हरत परस्पर ।
जै श्रीहित हरिवंश प्रशंस-परायन,
गायन अलि सुर देत मधुर तर ॥
श्री हित चतुरासी जी पद 7
आजु निकुंज मंजु में खेलत, नवल किशोर नवीन किशोरी ।
अति अनुपम अनुराग परस्पर, सुनि अभूत भूतल पर जोरी ॥
विद्रुम फटिक विविध निर्मित धर, नव कर्पूर पराग न थोरी।
कोमल किसलय सयन सुपेसल, तापर श्याम निवेसित गोरी ॥
मिथुन हास-परिहास परायन, पीक कपोल कमल पर झोरी।
गौर-श्याम भुज कलह मनोहर, नीवी-बंधन मोचत डोरी ॥
हरि-उर-मुकुर विलोकि अपनपौ, विभ्रम विकल मान-जुत भोरी ।
चिबुक सुचारु प्रलोइ प्रबोधत, पिय प्रतिबिंब जनाय निहोरी ॥
नेति नेति बचनामृत सुनि-सुनि, ललितादिक देखत दुरि चोरी ।
जै श्रीहित हरिवंश करत कर धूनन, प्रणयकोप मालावलि तोरी ॥
श्री हित चतुरासी जी पद 9
बनी श्रीराधा-मोहन की जोरी।
इन्द्रनीलमणि श्याम मनोहर,
सातकुम्भ तन गोरी ॥
भाल विशाल तिलक हरि कामिनि,
चिकुर चंद्र बिच रोरी।
गज-नायक प्रभु चाल गयंदनि,
गति वृषभानु किसोरी ॥
नील निचोल जुवति मोहन पट,
पीत अरुण सिर खोरी।
जै श्रीहित हरिवंश रसिक राधापति,
सुरत रंग में बोरी ॥
श्री हित चतुरासी जी पद 10
आजु नागरी-किशोर भाँवती विचित्र जोर,
कहा कहौं अंग-अंग परम माधुरी ।
करत केलि कंठ मेलि बाहुदंड गंड-गंड,
परस सरस रास-लास मंडली जुरी ॥
श्यामसुन्दरी बिहार, बाँसुरी मृदंग तार, मधुर घोष नूपुरादि किंकिनी चुरी।
जै श्री देखत हरिवंश आलि,
निर्त्तनी सुधंग चाल,
वारि फेर देत प्राण देह सौं दुरी ॥
श्री हित चतुरासी जी पद 11
मंजुल कल कुंज देश, राधा हरि विशद वेश,
राका नभ कुमुद-बंधु शरद जामिनी ।
साँवल दुति कनक अंग, बिहरत मिलि एक संग,
नीरद मनौ नील मध्य लसत दामिनी ॥
अरुण पीत नव दुकूल, अनुपम अनुराग मूल,
सौरभयुत शीत अनिल मंद गामिनी ।
किसलय दल रचित शैन, बोलत पिय चाटु बैन,
मान सहित प्रतिपद प्रतिकूल कामिनी ॥
मोहन मन मथत मार, परसत कुच-नीवि-हार,
वेपथयुत नेति-नेति बदत भामिनी ।
नरवाहन प्रभु सुकेलि,
बहुविध भर भरत झेलि,
सौरत रस रूप नदी जगत-पावनी ॥
श्री हित चतुरासी जी पद 12
चलहि राधिके सुजान, तेरे हित सुख निधान,
रास रच्यौ श्याम तट कलिंद नन्दिनी ।
निर्त्तत युवती समूह, राग-रंग अति कुतूह,
बाजत रसमूल मुरलिका अनन्दिनी ॥
वंशीवट निकट जहाँ, परम रमनि भूमि तहाँ,
सकल सुखद मलय बहै वायु मन्दिनी ॥
जाती ईषद विकास, कानन अतिसय सुवास,
राका निशि सरद मास विमल चंदिनी ॥
नरवाहन प्रभु निहारि, लोचन भरि घोष नारि,
नख-सिख सौन्दर्य काम-दुख-निकन्दिनी ।
विलस भुज ग्रीव मेलि, भामिनी सुख-सिन्धु झेलि,
नव निकुंज श्याम केलि,जगत-वन्दिनी ॥
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